लोकसभा चुनाव 2024 खत्म होने के दो हफ्ते बाद इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) पर सवाल खड़े हो रहे हैं. मुंबई उत्तर-पश्चिम लोकसभा सीट पर ईवीएम से छेड़छाड़, ओटीपी और मोबाइल के इस्तेमाल को लेकर विवाद छिड़ा हुआ है. इस बीच अमेरिकी अरबपति और टेस्ला कंपनी के मालिक एलन मस्क ने भी ईवीएम पर बैन लगाने का एक पोस्ट शेयर कर दिया. आइए समझते हैं कि अमेरिका की EVM भारत से कितनी अलग है.
अधिकतर देशों के चुनावों में जनता के पास मतदान करने का दो में से एक विकल्प होता है- या तो बैलेट पेपर या इलेक्ट्रॉनिक मशीन. जैसे भारत में सभी वोट ईवीएम में रिकाॅर्ड किए जाते हैं. लेकिन अमेरिका में बैलेट पेपर और इलेक्ट्रॉनिक मशीन दोनों का ऑप्शन मिलता है. हालांकि, फिर भी अधिकतर लोग बैलेट पेपर से ही वोट करना चुनते हैं.
अमेरिका की वोटिंग मशीन
अमेरिका में हर एक राज्य अपने चुनावों को प्रशासित करने का प्रभारी है, और अधिकांश निर्वाचन क्षेत्र में, वोटिंग मशीनें चुनावी प्रणाली का एक अभिन्न अंग है. अमेरिका में जो डायरेक्ट-रिकॉर्डिंग इलेक्ट्रॉनिक (DRE) मशीनें इस्तेमाल होती है, उनका आविष्कार 1974 में हुआ था. आज इसके कई वर्जन उपलब्ध हैं, लेकिन सब के काम करने का तरीका लगभग एक जैसा है. मतदाता मशीन पर अपने वोटों को चिह्नित करने के लिए टच स्क्रीन, व्हील या अन्य डिवाइस का इस्तेमाल करता है, जिसके बाद मशीन की मेमोरी में वोट रिकॉर्ड हो जाता है.
भारत की तरह कुछ डीआरई मशीनों में वोटर-वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (VVPAT) लगा होता है. इससे मतदाता को उनके द्वारा किए गए वोट का पेपर रिकॉर्ड एक स्लिप के रूप में मिल जाता है.
अमेरिका में ऑप्टिकल स्कैन सिस्टम भी काफी लोकप्रिय है. यह काफी हद तक स्कूल टेस्ट के OMR शीट जैसा होता है. इसमें वोटर को एक शीट मिलती है, जिसमें सभी उम्मीदवार के नाम और उनके आगे एक गोला बना रहता है. वोटर काले पेन से अपने पसंदीदा उम्मीदवार के आगे वाले गोले को भरकर उसे चिह्नित करता है. यह काम प्राइवेट बूथ में होता है. जब वोटर अपने मतपत्र जमा करते हैं, तो मतपेटी के ऊपर लगा स्कैनर उसे स्कैन करके वोट को रिकॉर्ड कर लेता है. कुछ जगह, पुराने जमाने की तरह, मतगणना के बाद सभी बैलेट पेपर के वोटों को एक-एक करके गिना जाता है.
वोटिंग मशीन से बचती क्यों है अमेरिका की जनता?
डायरेक्ट-रिकॉर्डिंग इलेक्ट्रॉनिक (DRE) मशीन को लेकर अमेरिका में काफी बहस होती है. इन मशीनों में वोट को रिकॉर्ड करने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल होता है. कंप्यूटर साइंस से जुड़े लोगों का मानना है कि इससे मशीन के हैक होने की संभावना बढ़ जाती है. अगर मशीन के साथ छेड़छाड़ होती है, तो उसमें पड़े वोटों को बदला या नष्ट किया जा सकता है.
इसके अलाव वहां की मशीन में इलेक्ट्रॉनिक वोट के बैकअप के लिए कोई फिजिकल रिकॉर्ड नहीं है. इसका मतलब यह है कि मशीनें हैक या खराब होने पर, उनके पास डाले गए वोटों का फिजिकल बैकअप नहीं होता. अमेरिका की जनता में अपने वोटिंग मशीनों को लेकर ज्यादा भरोसा नहीं है. इस वजह से कई लोग मशीन की बजाय पेपर से वोट करना सही समझते हैं. इलेक्ट्रॉनिक मशीनों से वोट करने वाली आबादी लगातार घट रही है.
भारत की EVM को हैक करना क्यों मुश्किल है?
भारत में सबसे पहले 1982 में ईवीएम का इस्तेमाल हुआ था. केरल के परूर विधानसभा सीट के 50 मतदान केंद्रों पर वोटिंग करने के लिए ईवीएम लगाए गए थे. पहली बार पूर्ण रूप से इनका इस्तेमाल 2004 के लोकसभा चुनाव में हुआ. इस मशीन के दो हिस्से होते हैं- कंट्रोल यूनिट और बैलेट यूनिट. दोनों यूनिट 5 मीटर की केबल से जुड़े होते हैं. वोटिंग ऑफिसर जब तक कंट्रोल यूनिट से बैलेट बटन प्रेस नहीं करेगा, वोटर बैलेट यूनिट से वोट नहीं डाल सकते. एक वोटर सिर्फ एक ही वोट डाल सकता है.
चुनाव आयोग ने बार-बार दोहराया है कि भारत के चुनावों में इस्तेमाल होने वाली ईवीएम मशीनों को न तो हैक किया जा सकता है और न ही उनके साथ छेड़छाड़ की जा सकती है. ये साधारण बैटरी से चलने वाली स्टैंड अलोन मशीनें हैं. यानी कि वो इंटरनेट और/या किसी अन्य नेटवर्क से जुड़ी हुई नहीं है. इसलिए उनके हैक होने के आशंका नहीं है.